कल जो बीता VIMAL KISHORE RANA
कल जो बीता
VIMAL KISHORE RANAपल में बीता, हल में बीता,
छल में बीता जो भी जीवन,
कल से बीता, कल में बीता,
कल जो बीता वो भी जीवन।
नए-नए मौसम, नए दृश्यचित्र,
होते पुतिन नए वृतचित्र,
जीवन की चक्रवत धुरी,
समय सम्पूर्ण, इच्छा अधूरी।
सहता बहता सा जलप्रवाह,
हल्का नीला सा आसमाँ,
मीठी-मीठी सी धुन कोई,
सरसों महकी, महगुण कोई,
बचपन की चंचल सी हँसी,
उपवन में हलचल सी कभी।
क्यों पर हैं पंछी को मिले,
क्यों गुल हैं लगते बस खिले,
क्यूंकर कूकी कोयल मधुर,
क्यों घुलता सा कल-कल स्वर।
सावन का पावन सा मल्हार,
होता हो ज्यों स्वप्न साकार,
स्वप्न रहता जो नयनों में,
दर्पण कहता मृगनयनों में,
बहता कल था, कल जो बीता,
कल रह गया रीता-रीता।
क्षय हो परिवर्तन के संग-संग,
न हो पाए अब चित्त मलंग,
चित्त की इच्छा, मन का स्वप्न,
परिवर्तित मन, सब परिवर्तन।
कल भी बदला, बदला जो आज,
बदला जीवन बदला समाज।
छुपता अंबर दीवारों में,
धुन खो गई अंगारों में,
कोयल की धुन, पंछी का राग,
अब शेष वन में ही प्रयाग।
महकी हरियाली की महक,
अब कहाँ गूंजी सी चहक,
सावन आता है, जाता है,
कब, कौन, क्या सँजो पाता है।
कहते नयनों का सूनापन,
पिंजरे में व्यथित मन स्वप्न,
पल भी बीता, कल भी बीता,
पल से पहले हर कल बीता,
बीते जो कल, बीते जो आज,
बदले जो जीवन और समाज।
कल-कल करके कलयुग होगा,
जाने कब तक कलयुग होगा।
जाने कब तक कलयुग होगा।
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कल जो बीता, बीते हुए कल पर मानव महत्वकाँक्षा से उपजे आज का विरोधाभास है। मानव महतवाकांक्षा ने प्रकृति व परंपरा से जो अघोषित युद्ध किया है, कल जो बीता उसके पूर्व स्वरूप व अग्र यातना के संक्षिप्त वर्णन का एक प्रयास है। प्रकृति के हनन से अंतरात्मा की शुद्धता कैसे परिवर्तित होती है, पद्यांश के माध्यम से इस भाव को छूने की भी कोशिश की गई है।