दंगल हार और जीत का RATNA PANDEY
दंगल हार और जीत का
RATNA PANDEYकर रही हैं गुमराह देश को आज कुर्सियाँ,
राजनीति के इस दंगल में सभी को
चाहिए आरामदायक कुर्सियाँ।
जीत की हवस में चरित्र को गवाँ
रही हैं आज कुर्सियाँ,
सच झूठ का कोई महत्त्व नहीं,
अपने स्वार्थ की चाह में सच को झूठ
और झूठ को सच बना रही हैं आज कुर्सियाँ।
सब खेल यहाँ कुर्सी का है
हर हाल में खेल सिर्फ जीत का है,
जीत कर सभी को फूलों का हार पहनना है,
हार कर आए हैं जो उन्हें अगली
जीत के इंतज़ार में भटकना है,
लगाकर दोष दूजे पर उसे
नीचा दिखाना है।
कहीं जीत कहीं हार है,
कभी जीत कभी हार है,
ज़िंदगी का बस यही हाल है
और जीत हार की इस कश्मकश में
देश का बुरा हाल है।
बैठ जीत की कुर्सी पर यह अपनी नैया चलाएँगे,
डूबती हुई अपनी कश्ती को
कुर्सी के दम पर पार लगाएँगे।
जनता भले ही भूखी मर जाए,
यह खुद की रोटी ही सेंक जाएँगे,
नहीं जानते क्या यह इतना भी
कि जीतकर भी यह भगवान की अदालत
में हारे हुए ही माने जाएँगे।
किस काम की ऐसी जीत
अगर देश को आगे ना बढ़ा पाए,
किस काम की ऐसी हार
कि हार कर भी सबक ना ले पाए,
खुदगर्ज़ी से भरे जीत हार के
इस दंगल में कोई भी जीते,
किन्तु हार देशवासियों की ही होगी।
भटक गई है राजनीति कीचड़ के दलदल में,
फँस गए हैं नौजवान लालच के बवंडर में,
सभी को अपनी जीत की फिक्र है,
देश की यहाँ किसको पड़ी है।
गिरेगा राजनीति का स्तर अगर इतना,
भले कोई भी जीते किन्तु
देश ही हारेगा अपना,
देश ही हारेगा अपना।