टिमटिमाते थे कभी चूल्हे  RATNA PANDEY

टिमटिमाते थे कभी चूल्हे

RATNA PANDEY

टिमटिमाते थे कभी चूल्हे,
कभी होती नहीं थी लकड़ी
और कभी होती थी वह गीली,
फूँक-फूँक कर चूल्हा
दम घुट जाता था
और हो जाती थी आँख तब गीली।
 

निकलते धुँए से फेफड़ों में रोग था लगता,
बैठ आग के सामने शरीर था तपता,
दिन भर की थकी हारी
शाम को लकड़ी का गट्ठा
उठा लाती थी जब सर पर,
तभी जलता था चूल्हा उनके घर पर।
 

रोज़ लकड़ी की होती थी ढुँढ़ाई,
नज़र राह पर होती
कहीं दिख जाए छोटी सी
तो लकड़ी के गट्ठे में थी उसको पिरोती,
लाद कर गट्ठा गर्दन झुक सी जाती थी,
ठंड हो या हो गर्मी या हो बारिश भले आती,
मिल जाए अगर लकड़ी
ख़ुशी से वह उनका वज़न उठाती
कि शायद बन जाएगी दो जून की रोटी।
 

मगर अब हो गए रोशन चूल्हे
जो पहले टिमटिमाते थे,
ख़ुशियों के बहे आँसू
जो पहले धुँए से निकल जाते थे,
आज हर घर में है खुशहाली,
गरीबों के भी घर में है
चूल्हे की जगह अब गैस की बारी।
 

नहीं लकड़ी, नहीं धुँआ
और नहीं राख है अब घर में,
नहीं किल्लत है अब सर पर बोझा उठाने की,
गरीबों के लिए उज्जवला योजना है आई,
गृहणियों का नहीं अब दम घुटेगा
बटन दबाएँगी और चटपट खाना पकेगा।
 

उम्मीद है कि रोशन होंगे कल और भी चूल्हे,
नहीं कुर्सी नहीं राजनीति के बवंडर में कोई इसे ढकेले,
बेहतर हो जाएगा जीवन गरीबों का
यदि चुनौती हर कोई यह ले ले।

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