मज़दूर VIVEK ROUSHAN
मज़दूर
VIVEK ROUSHANभर-भर कर लॉरियों में
जो गाँव से शहर में लाए जाते हैं,
वो मज़दूर होते हैं।
धूप-छाँव,आँधी, तूफ़ान
की परवाह किए बिना
जो अपनी हड्डियों को गलाते हैं,
वो मज़दूर होते हैं।
तन पर फटी-पुरानी पोशाक पहनकर
जो रास्तों पर सफर करते हैं,
वो मज़दूर होते हैं।
अपने सपनों के महल को कुचलकर
जो दूसरों के सपनों का महल बनाते हैं,
वो मज़दूर होते हैं।
करोड़ों के पुल, बड़ी-बड़ी इमारतें,
रास्तों का निर्माण
जो तुच्छ मेहनताने पर कर देते हैं,
वो मज़दूर होते हैं।
शहरो में आने के बाद
जो गन्दी, बदबूदार नालियों के समीप
और सीवरों के ऊपर
रहने को मज़बूर हो जाते हैं,
वो मज़दूर होते हैं।
जो माँ, कभी अपने बच्चे को गर्भ में लेकर,
तो कभी अपने बच्चे को पल्लू में बाँधकर
ईंट और रेत उठाने को मज़बूर हो जाती है,
वो मज़दूर होते हैं।
दिन भर अपने तन को जलाने के बाद
जो रातों को रेत और धरती को
अपना बिछावन बना कर सो जाते हैं,
वो मज़दूर होते हैं।
कोयला कारखानों में,
केमिकल फैक्टरियों में,
जो अपने जिस्मों को गलाते हैं
और अपने फेफड़े को सड़ाते हैं,
वो मज़दूर होते हैं।
जिनका दिन में तन जलता है
और रातों को मन जलता है,
जो रोज़ रात को अपने सपनों की नींव बनाते हैं
और हर सुबह जिनके सपने उसी नींव में दब जाते हैं,
वो मज़दूर होते हैं।
जिनके बच्चों के सर से छत
और जीवन से तालीम गायब रहती है,
वो मज़दूर होते हैं।
सियासत दानों के लिए
जो वोट का हथियार होते हैं,
और जो हुकूमतों का
चुपचाप अत्याचार सहते हैं
वो मज़दूर होते हैं।
मज़दूर बहुत मजबूर होते हैं,
हमारे आस-पास होकर भी
हमसे बहुत दूर होते हैं,
कर्म वो दिन-रात करते हैं,
पर खराब उनके नसीब होते हैं,
दर्दों के से में जो अपने जीवन को जीते हैं,
अपने जीवन की कठिनाई को
जो तन्हाई की चादर से ढक लेते हैं,
लोकतंत्र के ढांचे में जो आखिरी पायदान पर होते हैं,
और समाजिक प्रणाली में जो हाशिए पर होते हैं,
वो ही तो मज़दूर होते हैं।