पहाड़ी बाँज और ठूँठ  SUBRATA SENGUPTA

पहाड़ी बाँज और ठूँठ

SUBRATA SENGUPTA

प्रायः शयन कक्ष के
झरोखे से दृष्टि पहाड़ी पर
एक बाँज की तरु पर जाती है,
ऐसा लगता है मानो
बाँज बयार की बयारि के संग
हिंडोलते हुए मुझसे
कुछ कहना चाहता है।
 

शायद वह यह कहना चाहता है,
हे मानव! जीवन क्षण भंगुर है,
वक़्त के साथ-साथ चलना सीख लो,
अपने-अपने हिस्से की मौज मस्ती भोग लो,
आने वाला पल आने वाला है,
क्योंकि वह ढीली बंद मुट्ठी में
रेत की तरह है।
 

कभी-कभी बयार के तीव्र वेग से,
अपनी संपूर्ण ऊर्जा से
बाँज को लोहा लेते हुए देखा हूँ।
आखिर थककर,
पराजय स्वीकार कर,
घुटने टेककर,
नमन करते हुए भी देखा हूँ,
परन्तु अपनी ज़मीन की जड़ से,
कभी भी डगमगाते नहीं देखा हूँ।
 

शायद वह पहाड़ी बाँज ये कहना चाहता है,
हे मानव! समय-समय की बात है,
जीवन में हार-जीत लगी रहती है,
जीवन में जो हारना जनता है,
वही जीवन में जीतता भी है।
 

जीवन के हार-जीत के खेल में
कभी-कभी झुकना भी पड़ता है,
परन्तु अपनी ज़मीन की जड़ को,
अडिग बनाए रखना,
अपने वजूद को
कभी भी परवश होने न देना।
 

उसके विपरीत मेरी दृष्टि
जब एक ठूँठ पर जाती है,
ऐसा लगता है मानो
वह अपनी ज़मीन पर
अपाद मस्तक खड़ा है।
वह सभी से अड़ा है,
उसे किसी से न लेना है
और न ही किसी को देना है,
न ही किसी को कहना है
और न ही किसी की सुनना है,
उसमें प्राण नहीं है
क्योंकि वह एक जड़ है।
 

परन्तु पहाड़ी बाँज एक
सजीव प्राणी है,
इसलिए उसे हर एक
ठूँठ की तरह अड़ना नहीं है,
समय-समय पर झुकना भी है।

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