धुंधले निशाँ रोशन "अनुनाद"
धुंधले निशाँ
रोशन "अनुनाद"अपरिमित आकाश,
स्निग्ध चाँदनी रही बिखर,
गहरी नीली, टिहरी झील,
मानो और गई निखर।
सामने एक ओर खड़ा,
उतङ्ग अटल पर्वत शिखर,
निर्भीक, निश्छल, निडर।
प्रकट हो रहा चहुँ ओर,
अद्भुत सौंदर्य, अनुपम निशा,
मनमग्न, मदहोश सी हर दिशा,
आज़ फिर यादों में खोया हूँ,
कितना हँसा कितना रोया हूँ।
अब वे खेत-खलिहान न रहे,
वे चौक-मचान न रहे,
अब बस अहसास है,
जैसे सब आस-पास है।
बदले मंज़र में बचपन के निशाँ,
सुनसान किनारे डरावने बियाबां,
जहाँ मिट्टी पर लोटते-घिसते थे,
अजीब पर सजीव रिश्ते थे।
साथ हँसते साथ रोते थे,
खुली छत पर चाँदनी में सोते थे,
नानी, काकी, चाची ताया होते थे,
सभी हमराह हमसाया होते थे।
किसी का भारी बोझ
मिलकर उठा लेते थे,
किसी को ज़रूरत हो तो
मिलकर जुटा लेते थे।
आज समा फ़िज़ा दीग़र है,
आया हूँ पर सोचता हूँ
कि क्या ये मेरा घर है?
मातृभूमि की एक झलक,
खींच के लाई है ललक,
देख रहा अपलक,
अश्रु कपोल पर रहे ढलक,
फिर जाने कब हो आना,
कल क्या होगा किसने जाना।