सर्वत्र हूँ  Rushi Bhatt

सर्वत्र हूँ

Rushi Bhatt

मैं शब्द की श्वास हूँ, संगीत का उन्माद हूँ,
बौद्ध गया में हुआ खुद के साथ संवाद हूँ।
 

नहीं हूँ, न था, न रहूँगा, शाश्वत हूँ,
ब्रम्ह के मुख से हुआ ॐ कार का नाद हूँ।
 

छान्दोग्य का तत्वमसि और वेदों का नेति-नेति,
कृष्ण शिशुपाल के बीच चलता निरन्तर विवाद हूँ।
 

रागों में हूँ मल्हार और भावों में हूँ मैं श्रृंगार,
उसके समन्वय से रचा मंसूर का आत्मवाद हूँ।
 

तकी थी खुद की ही राह, बनकर सुदर्शन तालाब,
अब कुंड दामोदर में सुनाई देता मंत्रों का आस्वाद हूँ।
 

किया था तांडव, प्रियतम के मृत्यु के गहरे विषाद में,
अब पार्वती की गर्दन पर टपकते पसीने का स्वाद हूँ।
 

सिखाया था सांख्य योग अर्जुन को रणभूमि के बीच,
अब शिवोहं शिवोहं में होता अहंकार का अवसाद हूँ।
 

ढूँढना हो गर मुझे, तो पहुँच जाना गोरख की चोटी पे,
अघोरिओं की चिल्लम में बसता सूक्ष्मता का वाद हूँ।

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