दाग  Kaushalesh Rajput

दाग

Kaushalesh Rajput

उसने देखे थे
और छुआ भी
चाँदनी रातों के
स्याह अंधेरों को।
मक्खन से ज्यादा नर्म,
बिस्तर में छुपे,
ढेरों गुलाब के काँटे।
यूँ ही नहीं वो मौन थी,
पहचान लेती है अब वो
हर चेहरे के पीछे
छिपे चेहरे को।
 

उसने खाई हैं
वो खूबसूरत मिठाइयॉँ,
जो असल में थीं
करेले सी कड़वी।
इसलिए तो छोड़ आई
झूठे आदर्शवाद को,
और अपने पीछे इक नाम,
जो उसकी पहचान बन बैठा था।
 

हवाओं की हलचल का खालीपन
अब उसे भाता है,
मगर अफसोस, "कौशल "
इतने यत्न कर लिए उसने,
पर मिटा नहीं पाई
वो गालों पर लगे,
दाँतों के दाग।

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