स्वतंत्रता  DEVENDRA PRATAP VERMA

स्वतंत्रता

DEVENDRA PRATAP VERMA

दासता की बेड़ियों से अब वतन आजाद है,
जुल्म की पहेलियों से अब चमन आजाद है,
लहू चमक रहा गगन में वीर बलिदानियों का,
धरा से आ रही महक अब वतन आजाद है,
किंतु माँ भारती की आँख में नमी है क्यों?
धड़कनें स्वतंत्रता की रुग्ण सी थमी है क्यों?
 

सरहदों पे अब खड़े सशक्त पहरेदार हैं,
जो दुश्मनों को रौंद दे सशस्त्र तैयार हैं,
भय से विमुक्त राजधानी गीत गा रही,
प्रतिक्षण स्वतंत्रता के उत्सव मना रही,
किन्तु माँ भारती की आँख में नमी है क्यों?
धड़कनें स्वतंत्रता की रुग्ण सी थमी है क्यों?
 

प्रगति के प्रकाश का दीप जल रहा है,
उन्नति के उल्लास का दौर चल रहा है,
वक़्त के साथ नौजवानों का हूजूम है,
हर ख़्वाब हकीकत में अब ढल रहा है,
किन्तु माँ भारती की आँख में नमी है क्यों?
धड़कनें स्वतंत्रता की रुग्ण सी थमी है क्यों?
 

पैरों तले रौंदते हैं लाज की पेटियों को,
माँ के लाल नोंचते हैं माँ की बेटियों को,
हाय! चीख कर निर्भया दम तोड़ देती,
रोज कहीं मानवी शर्म से सर फोड़ लेती,
देख यह माँ भारती की आँख में नमी सी है,
धड़कनें स्वतंत्रता की रुग्ण सी थमी सी हैं।
 

रक्तरंजित हैं कलह से अब घरों की देहरियाँ,
अहम की अंधी निगाहें भूली माँ की लोरियाँ,
रिश्तों में व्यापार की भूख है व्यसन है,
अब कहीं मिलती नहीं है शिष्टता की रोटियाँ,
देख यह माँ भारती की आँख में नमी सी है,
धड़कनें स्वतंत्रता की रुग्ण सी थमी सी हैं।
 

खिलने लगा है झूठ हृदयों में महकता फूल बन,
चुभने लगा है सत्य आँखों में विषैला शूल बन,
न्याय, नीति, नियम, समर्पण राजनीति से दूर हैं,
बिलखती है मानवता मानव के दर पे धूल बन,
देख यह माँ भारती की आँख में नमी सी है,
धड़कनें स्वतंत्रता की रुग्ण सी थमी सी हैं।
 

सब अन्न के भंडार भरे, भरे रह जाते हैं,
सारे धन के कुबेर खड़े, खड़े रह जाते हैं,
भूख, भूखे बच्चों को निवाला बना लेती है,
हाय! निर्धन निरीह हाथ धरे रह जाते हैं,
देख यह माँ भारती की आँख में नमी सी है,
धड़कनें स्वतंत्रता की रुग्ण सी थमी सी हैं।

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