खेद  Udit Gupta

खेद

Udit Gupta

जब बनाया होगा खुदा ने इंसान को,
सोचा होगा की
सौंप देता हूँ अब इस धरती को
इन सुरक्षित हाथों में,
और सारा ब्रह्माण्ड भी तो देखना है मुझे ही।
चलो इस धरती का भार इस इंसान को सौंप रहा हूँ,
यही सोचकर निकल गया वो सैर पर।
 

एक दिन यूँही खाली बैठा वो,
उसे यह धरती याद आई,
इंसान को सौंप दी थी जो अमानत
अब तक वो होगी जन्नत।
 

उस दिन वो उतना ही उत्साहित था,
जैसे कोई बच्चा अपने जन्मदिन के तोहफों के इंतज़ार में।
झूमता हुआ पहुँचा वो इस धरती पर जब,
जिसे सोचा था उसने "जन्नत होगी",
लेकिन...
घमंड जो था उसे अपनी इस रचना पर,
सब इंसान ने चूर दिया।
 

सोच में वो खुद पड़ गया,
जन्नत तो मैंने ही दी थी तुझे
ऐ इंसान यह कैसा तूने दर्श किया।
मेरी इस धरती को तूने सीमाओं से काट दिया,
चल यह माफ़ किया,
लेकिन...
मैं तो एक ही हूँ मूर्ख,
क्यों तूने मुझे भी हिस्सों में बाँट दिया?
 

रहने को तो तेरे दिल में बस जाऊँ,
फिर क्यों मुझे मंदिर, मस्जिद में छाँट दिया?
धर्म तेरा बस प्यार है बन्दे,
फिर क्यों तूने धर्म के नाम पर
खुद से खुद ही को बाँट लिया?

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