कुछ नज़ारे यूँ मिले  RAHUL Chaudhary

कुछ नज़ारे यूँ मिले

RAHUL Chaudhary

शाम की यूँ भीगती गलियों से निकलकर,
यू बारिशों में मैं चला भीगने खूब शौक से,
शहर की चकाचौंध जला छतरी ताने बड़ी मौज से,
कुछ नज़ारे यू मिले...!
 

तड़क भड़क आसमां में बिजलियों के कड़कने सा,
खिड़कियाँ काँच की झाँकती बंद दरवाजे खड़कने सा,
मंद रोशनी की जलती बुझती बत्तियों के होने सा,
सरसराती चाँदनी में पत्तियों पर मोती फिसलने सा,
झूरमुटों के घोसलों में भीगते पंछियों के काँपने सा,
थरथराती ताप से ठिठुर बिटुर कर हारने सा।
बहती धाराओं को ठेलते सड़कों पर,
यूँ छपाक पैरों से पटरी के किनारों पर,
सड़क के गड्ढों से बचते यूँ दाएँ बाएँ चलते फिरते,
कुछ नज़ारे यू मिले...!
 

हैं वहीं जमीं पर कुछ परिंदे बिखरे हुए,
जो बसाते हैं किनारे रास्तों के काफिले,
गंदगी है जहाँ बंदगी से वहां कई जी रहे
छत बिना यूँ ज़िन्दगी,
है अधूरा अनजान सा,
जी रहा घुट घुट परिंदा
आसमां में बेजान सा।
बादलों की चमचमाती रोशनी जो यूँ पड़ी,
कुछ नज़ारे यू मिले...!
 

ये बूंदे हैं थिरकती ओट में, हैं ये जहाँ छिपे,
मोड़ के चली जाती बारिशें तरस खा के इनपे।
दो टूक के हैं ये मारे
घर बार ना बाज़ार के बेचारे,
दो टूक के दो बूंद के बहाने
भीड़ में रुख करते ये ठिकाने।
ये देखते और सोचते प्रकृति को यूँ निहारते,
तन मन में सिहर करके विचार के फव्वारे उठे,
कुछ नज़ारे यू मिले...!
 

ना उजाड़ो ये घरौंदे तिनका-तिनका,
गर छिपा किसी ताख में,
है कीमती बेमोल सा नीड़ इनका,
हर निशां है बसा किसी शाख में।
 

जंगलों कंदरो में कौन जाता है सजाने,
रात दिन का सहारा सिर ढाकने को ठिकाने,
दूर का सफर लांघ कर अवशेष कूगकर खाने,
किलकारियाँ बेजान सी आती सुबह हमको जगाने।
 

हम घिरे आसमां और जमीं से,
सिमट के जीते इन परिंदो से,
खूबसूरती रंगीनियाँ हैं सब इनसे,
फिजा में इनके भी होने से।

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