गुरू-शिष्य प्रथा का अंत मुस्कान चाँदनी
गुरू-शिष्य प्रथा का अंत
मुस्कान चाँदनीबदल गई है परिभाषा गुरू-शिष्य की
बदलते दौर में इस कदर ज़्यादा,
मिल जाता था अंगूठा भी
पहले गुरू को गुरूदक्षिणा में,
हँसते-हँसते काट दिया करता था शिष्य,
शिकन न होती थी चेहरे पर।
मिलता था दर्जा गुरूओं को भगवान सा,
शिष्य पूजते थे माँ-बाप से बढ़ कर,
और आज समय बदल गया है,
हो गया है ठीक उसका उल्टा,
रिश्तों में कड़वाहट आ गई,
शिक्षा बन गया है व्यवसाय।
अब शिक्षा पैसे पर तोली जाती,
जितना ऊँचा दाम है होता
उतनी अच्छी शिक्षा मिलती,
एक हाथ दे, एक हाथ ले का
अब सिद्धांत है चलता।
भावनाओं का अब कोई मोल नहीं,
जज्बातों की कोई कद्र नहीं,
पैसा है तो मिलेगी शिक्षा,
बिन पैसा शिक्षा कैसी।
गुरू-शिष्य के बीच
अब मधुर संबंध न रहा,
अंगूठा दान देने की प्रथा न रही,
गुरू-शिष्य की परिभषा ही बदल गई।
अब शिष्य अंगूठा काटते नहीं
दिखा कर जाने लगे,
शिष्टाचार न रहा
अब अपमान करने लगे,
जब से आया है पैसा
शिक्षा के बीच में,
तब से गुरू-शिष्य की परंपरा
खत्म होने लगी,
बदल गया सब ढाँचा शिक्षा का,
बन कर रह गया सिर्फ व्यवसाय।