अब कब नींद खुलेगी Pushpendra Singh Bhadauriya
अब कब नींद खुलेगी
Pushpendra Singh Bhadauriyaज़ैनब प्रीतो और जया मर गई अब कब नींद खुलेगी,
अरे इंसानों में सब हया मर गई अब कब नींद खुलेगी।
बीच सड़क पर रेप करो या चेहरे पर डालो तेज़ाब,
कैंडल मार्चों वाली सभा मर गई अब कब नींद खुलेगी।
सच लिखने, कहने, सुनने वालों के सिर कलम हुए,
टीवी अखबारों की जुबाँ मर गई अब कब नींद खुलेगी।
आँखें फाड़े, फ़ोन निकाले सबको मरते देख रहे हम,
भगवन मर गए, प्रजा मर गयी अब कब नींद खुलेगी।
पक्के-पक्के कमरों में रह कर पत्थर से जज़्बात हुए,
दिल से दर्द होंठों से दुआ मर गई अब कब नींद खुलेगी।
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इस रचना को "अब कब नींद खुलेगी" शीर्षक देने का मकसद समस्त देशवासियों को वर्तमान में देश में व्याप्त और आम लोगों पर बीतने वाली समस्त बुराइयों जैसे आतंकवाद, बच्चियों से हो रहे रेप, इंसान का इंसान के प्रति असंवेदनशील बनता जाना, सच्चाई का साथ देने वालों पर हो रहे अत्याचारों, भ्रष्टाचार , मज़हबी दंगों की परेशानी को याद दिलाकर उनसे यह सवाल पूछना है कि आखिर अब कब नींद खुलेगी।