बेरोज़गार  RAHUL Chaudhary

बेरोज़गार

RAHUL Chaudhary

यूँ मंजर मंजर,
फिरता दर-दर,
बगल में थैला लटकाकर,
क्योंकि हम बेरोज़गार हैं।
 

थपेड़ों से थक हार कर,
दिन के जैसे जल बुझ कर,
हर रोज़ यूँ मैं बिखर कर,
तार-तार हो जाता हूँ।
 

आदत है अब तो अपनी,
सहनी होती थोड़ी इतनी,
नित्य कर्म है जी ये तो,
क्योंकि हम बेरोज़गार हैं।
 

दस्तावेजों का चिठ्ठा लेकर,
बगल में थैला लटकाकर,
ढूँढूँ मैं हर दफ्तर-दफ्तर,
दो पैसों की रोज़ी खातिर।
 

कितने सारे ताने सहकर,
शर्म की धारा में यूँ बहकर,
बेबसता को छिपाकर,
क्योंकि हम बेरोज़गार हैं।
 

सूट बूट को साज धार कर,
संवार कर चेहरा चमका कर,
दफ्तर में कितने मेरे जैसे,
लगे हुए यूँ पंक्ति सजाकर।
 

तिल-तिल कर छाँट बीनकर,
सारे में से एक ऐसा चुनकर,
सौंप दिया दफ्तर को,
उसका मनचाहा नौकर।
 

बच गए जितने अब फिर से,
नित्य मोर्चा पर कदम बढ़ाकर,
चले संवर के दूसरे दफ्तर,
क्योंकि हम बेरोज़गार हैं।
 

संख्या में तो नौकरी कम हैं,
ये सच है उससे आगे हम हैं,
मारा मारी वक़्त की भगदड़ है,
ज्यों प्यासे सारे पनघट पर हैं।
 

जर्जर सी लचक डोर है,
तनिक बदतर हालातों में भी
मुखमंडल पर ना शोर है,
बिखरे उलझे जज्बातों में भी।
 

यूँ हम तो बेकसूर हैं,
रोज़ी रोटी से मजबूर हैं,
हम खुद के गुनहगार है।
 

उठा पटक यूँ तार-तार,
धारा का रुख़ बेजार है,
दामन प्रयासों का गया ठहर,
क्योंकि हम बेरोज़गार हैं।

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