वैश्या VIKAS UPAMANYU
वैश्या
VIKAS UPAMANYUनहीं बनी "वैश्या" मैं अंतर्मन से,
बेचा है खुद को केवल अपने तन से,
मन मेर आज भी पाक-पवित्र है,
छू न पाया कोई मुझको मेरे मन से।
दुनिया के ठेकेदारों तुम ही मुझको बदनाम किए,
मेरे दामन में आकर सदा ही तुमने जश्न किए,
भेद मेरे जिस्म को आलिंगन भर-भर जाम पिए,
हवस के भूखे लोगों क्यों तुम मेरी लज्जा लूट लिए?
नहीं समझी मजबूरी मेरी, बन कसाई अंग-अंग काटे हैं,
खुद तो खाया है लेकिन क्यों तू मुझको जग में बाँटे है,
है कोई ऐसा जग में जो आगे बढ़ प्रतिकार करे,
देख रूह की हालत मेरी कम्पन कैसे आकाश करे।
मैं एक कमज़ोर किस्मत की मारी थी,
कुछ मेरी मज़बूरी कैसी ये जिम्मेदारी थी,
मेरे जिस्म की लाश पर न जाने कितने जश्न हुए,
कुछ ने लूट लिया मुझको तो कुछ खसोट गए।
अब आँखों में अंगार नहीं, मन में कुठित लज्जा है,
नहीं होता कोई किसी का ये अपने मन की संका है,
पल भर की मस्ती में, न जाने कितनों का संहार किया,
तृप्त किया जीवन चिड़ियों का, पंखों को उनके काट दिया।
मुझे वैश्या बनाने में योगदान तुम्हारे बेमिसाल लगे हैं,
चुप है मेरा मन लेकिन दिल में भीषण बाण लगे हैं,
याद करूँगी जीवन भर तुमको बस एक मुझ पर उपकार करो,
अपने कृत्यों को छिपाने में तुम यू ना मुझको बदनाम करो।