कड़वा सच ABHISHEK KUMAR GUPTA
कड़वा सच
ABHISHEK KUMAR GUPTAथा मैंने जो देखा एक भयानक सपन था,
था सत्य वो लेकिन असत्य नहीं था।
चमकते सफेद चादर में लिपटी,
पड़े द्वार पर देख सब रो रहे थे,
था दुःख-भाव उनके मस्तक पर बैठा,
वे दाँतों को पीसते यूँ रो रहे थे।
कि जैसे कोई उनका अपना था लिपटा,
जो चादर में लिपटा बेखौफ सो रहा था,
जगाने कि कोशिश जो लोग कर रहे थे,
क्या मूर्ख नहीं जो यह काम कर रहे थे।
उन्हें ज्ञान शायद यह बिल्कुल नहीं था,
कि जो कैद में थी वो अब उड़ चली हैं,
खुदा से मिलन को वो पिंजड़े की पक्षी,
तोड़ पिंजड़ा सदा को वो अब उड़ चली है।