वो अपना छूट गया Pushpendra Singh Bhadauriya
वो अपना छूट गया
Pushpendra Singh Bhadauriyaबच्चे बूढ़े आमो खास,
सारा जग हुआ उदास,
धरती की प्यास से जो अबतक था बेख़बर,
उस बादल की आँखों से भी झरना फूट गया,
वो अपना छूट गया।
सड़कों पर उमड़ा जग,
फूल बिछ गए पग-पग,
इंसा से लेकर ईश्वर तक हर जुबान पर,
उनकी लिखी कविता और गीत गूँज गया,
वो अपना छूट गया।
धीरे-धीरे लेकर चलती बस,
तेज धूप भीड़ जस की तस,
एक दशक जिसको ना देखा ना सुना गया,
बिन बोले जाते-जाते लाख़ों दिल लूट गया,
वो अपना छूट गया।
रास्ता देख रही हैं भीगी आँखें,
गले लगाने को बढ़ती सूनी बाँहें,
लौट के फिर आएगा जो हमको छोड़ चला,
भारत माँ के मुकुट से इक मोती टूट गया,
वो अपना छूट गया।
घर पर परसी रखी है थाली,
हलवा पूरी उनकी पसंद वाली,
मानो लगता है अभी उठेगा खाना माँगेगा,
मगर मिठाई न देखकर वो बच्चा रूठ गया,
वो अपना छूट गया।
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करीब तेरह बरस की उमर में जिस पहली किताब को हाथ में पकड़ा था वो थी "मेरी इक्यावन कविताएँ", और उसे लिखने वाले करिश्माई व्यक्तित्व के धनी आदरणीय स्वर्गीय श्री अटल जी का जब निधन हुआ तो लाखों करोड़ों देशवासियों की ही तरह मेरी आँखों में भी आँसू छलक आए, और उन्हीं आँसुओं से उपजी है ये कविता।