दिहाड़ी में गजरा Rishi Raj
दिहाड़ी में गजरा
Rishi Rajएक मजदूर खड़ा है
लेबर चौक पर,
वो सोच रहा है
एक ऐसी कविता
जो आज तक लिखी ही नहीं गई।
उसकी बीवी बैठी है पीढिया पर,
पलट रही है तवे पे सिकती रोटी
और सोच रही है
क्या आज आएगा उसके लिए,
फूलों का गजरा।
दिहाड़ी लेकर लौटते वक्त
खरीद लिया है उसने
फूलों का गजरा,
वो आया था लेबर चौक होकर,
मोहल्ले की गली से लेकर
घर के दरवाजे तक,
गुनगुना रहा था
एक अजीब सी धुन।
हर शहर का होता है
अपना एक निजी लेबर चौक,
जहाँ खड़ा मिलता है मजदूर,
जिसके सिर है जिम्मा
उस शहर को बनाने का।
मगर हर शाम
दिहाड़ी लिए
जब वो गुज़रता है
उसी चौक से होकर,
तब वो नहीं रहता मजदूर,
वो होता है एक प्रेमी, एक पति,
या महज़ एक संगीतकार,
जिसने बना तो ली है एक धुन,
मगर जो अब भी ढूँढ रहा है
एक ऐसी कविता
जो वो घर लौटते वक्त गा सके।
हर सुबह,
चुन कर फेंक देती है बीवी
बिस्तर पर बिखरे फूल,
हर सुबह मजदूर खड़ा सोचता है
एक कविता,
लेबर चौक पर
अपने चुने जाने के इंतज़ार में।
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एक मजदूर के दो हाथ धूप में तपाए हुए, ईंट-पत्थरों के बोझ तले दबाए हुए. जिसके ऊपर से गुजरती हैं अनगिनत रेखाएँ तक़दीर की अनगिनत रेखाओं को काट कर। जब लौटते हैं ये दो हाथ वापस घर थक कर चूर, तब इन्हीं दो हाथों को चूमती हैं उनकी प्रेमिकाएँ, उन्हें मालूम है दो वक्त की रोटी की कीमत, बच्चों को पढ़ाने की अहमियत, वापस गाँव पैसे भेजने की ज़रुरत। संसार के सबसे मेहनतकश हाथ हैं, वो दो गुलाम हाथ जिन्होंने थाम रखी है समूची पृथ्वी और जो अब भी हाथ फैलाए, माँग रहा है काम।