विरह guddu singh kundan
विरह
guddu singh kundanतन झुलस गया आँखें डबडबा गईं,
पतझड़ बीत चुका ग्रीष्म ऋतु भी आ गई,
टकटकी लगाए निहारती उस पथ को,
जहाँ से तुम्हें पाने की कोई उम्मीद नहीं,
न जाने वो कौन सी घड़ी थी,
जिस वक्त मेरा दिल लहूलुहान हुआ।
ठहर जा ऐ बेखबर वक्त कुछ पल के लिए,
उसकी खुशबू मेरे मन में समा जाने दे,
क्या पता इन लबों पर कभी मुस्कराहट ही न फैले,
मौत ही आखिरी उम्मीद है अब मुस्कुराने की,
हज़ारों सुईयाँ चुभा दो इस बेजान जिस्म में,
दर्द की अब कोई गुंजाइश मत रखना।
विरह की दहकती आग में,
अरमानों की बली चढ़ गई,
जिसकी आस में सपने संजोए,
साथ निभाने से पहले ही वह बेवफा निकला,
शिकायत नहीं मुझे उसकी मोहब्बत से,
काश वो ज़िन्दगी भर साथ निभाने का वादा न करता।