स्त्री RAHUL Chaudhary
स्त्री
RAHUL Chaudharyआधार जो धरा का,
निर्माण इन युगों का,
रूप श्लोक है ग्रंथ का,
प्रकृति की शक्ति का।
वास है देवों का जहाँ,
भूमि है कोरी इसके बिना,
अजर अमर नहीं जहाँ,
अस्तित्व भी इसके बिना।
आदि है उत्पन्न कर,
जान ये बेजान सब,
पूज्य है देवी रूप भी,
फिर क्या हुआ है अब।
टोकते इसको धरा पर,
जन्म को क्यों बेरुखी,
छोर भी शिरा है ये,
अंत की शुरुआत का।
क्यों लगाते आग हम,
घेरते लपट के जाल में,
कौड़ियों के जंजाल को,
तौलते इसके कंकाल से।
कर्ज से लदे हो पुरुष,
किसी ना किसी रूप में,
एहसान है तुमको मिला,
स्त्री के हर रूप में।
आगमन इनका हुआ,
रूप ये अनेक लिए,
उम्र के हर पड़ाव पर,
ये खड़ी तेरे लिए।
ममत्व ने बड़ा किया,
संग हमसफ़र बनी,
खैर की दुआ लिए,
संग है तेरे खड़ी।
पलकों पर दे जगह इन्हें,
दूर कर नज़रों के मैल को,
अंजाम दे सभ्य कारनामे
हो छाप सुशोभित भाल को।