अभिव्यक्त नहीं कर सकता ARCHIT SHARMA
अभिव्यक्त नहीं कर सकता
ARCHIT SHARMAअभिव्यक्त नहीं कर सकता मैं आसक्त हुआ इतना कैसे,
यूँ दूर-दूर रहकर तुमसे सामिप्य हुआ इतना कैसे।
जितना भी ख़ुद को जटिल बनाया
तुमने उतना आसान किया,
इस लघु जीवन की नीरसता को
तुमने आकर अवसान दिया।
नीरसता को जीते-जीते रतियुक्त हुआ इतना कैसे,
अभिव्यक्त नहीं कर सकता मैं आसक्त हुआ इतना कैसे।
हर अभिलाषा मैंने मौन रखी थी
और भावों को चुपचाप किया,
पर अंतरमन की स्थिरता को
तुमने इक पल में भाँप लिया।
स्थिरमन सुंदर चंचलता से संयुक्त हुआ इतना कैसे,
अभिव्यक्त नहीं कर सकता मैं आसक्त हुआ इतना कैसे।
जीवन के पग-पग पर मैंने
एकाकीपन स्वीकार किया,
किंतु तुम्हारी सुधि ने मुझको
मधु स्मृतियों का हार दिया।
वह स्मृतियाँ पढ़ते-पढ़ते अलमस्त हुआ इतना कैसे,
अभिव्यक्त नहीं कर सकता मैं आसक्त हुआ इतना कैसे।
जब-जब सपने बुनना चाहा
दुःख ने आकर परिहास किया,
तुमने स्वप्नों को गले लगाया
नव खुशियों का आभास दिया।
उन स्वप्नों को बुनते-बुनते अनुरक्त हुआ इतना कैसे,
अभिव्यक्त नहीं कर सकता मैं आसक्त हुआ इतना कैसे।