जाने क्या ढूँढता हूँ  JASPAL SINGH

जाने क्या ढूँढता हूँ

JASPAL SINGH

जाने क्या ढूँढता हूँ शाम-ओ-सहर
जिस्म बेजान पा-ए-ज़ार लि,
मेरी आँखों सा बे-चमक होकर
चाँद आया है शब-ए-तार लिए।
 

खुदा से जो मिली उधार की थी
जिंदगी जो भी जी उधार की थी,
गम था अपना खुशी उधार की थी
और कितना जिऊँ उधार लिए।
 

ऐसा क्यों है के तपती आग तले
घर बेगाने के लिए ईंट जले,
कत्ल हों खाब जब भी रात ढले
सहर काटे उन्हें तलवार लिए।
 

कलम हाथों में थी दिखने के लिए
ना चली जब उठी लिखने के लिए,
जमीर आ गया बिकने के लिए
अपनी कीमत सरे बाजार लिए।
 

जो राज़-ए-ज़िन्दगी समझ पाता
वक्त रहते अगर संभल पाता,
बंधनों से अगर निकल पाता
यूँ ना फिरता दिल-ए-ना-चार लिए।
 

पा-ए-ज़ार -> दुखते पैर
शब-ए-तार -> काली रात
दिल-ए-ना-चार -> बेबस दिल

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