कविता  Shubham Amar Pandey

कविता

Shubham Amar Pandey

कविता समाज का दर्पण है
गूढ़ बात बतलाती है,
हर युग में यह अडिग खड़ी
सही मार्ग दिखलाती है।
 

जन्मी जो तुलसी की कुटिया
महकी बन मीरा की बिटिया,
जो महाप्राण की प्राण बनी
पाकर जिसको कवियों की शान बढ़ी।
 

सदा ही जो श्रृंगार कहे
वक़्त पड़े अंगार कहे,
पड़े जरूरत आगे आकर
शोषित की तलवार बने।
 

जो मन की व्यथा हटाती है
जो दिल में प्रेम जगाती है,
अगर निरंकुश हो सत्ताधारी
तो वो सत्ता को आँख दिखाती है।
 

जो मजहब से ऊपर रहती है
सरहद में न बँधती है,
वायु के झोकों की भांति
संसार को शीतलता देती है।
 

जो सीता के आँसू में बसती है
राम की पीड़ा में दिखती है,
जब अर्जुन का मन विचलित होता
तो श्रीमदभगवत गीता कहती है।
 

कभी बिहारी के शब्दों से
श्रृंगार भाव सिखलाती है,
कभी गुप्त जी के शब्दों से
देशप्रेम जगाती है।
 

ये कविता ही है
हर स्थिति में,
मन को धीरज दे जाती है।

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