कौन है जो मेरे भीतर है DEVENDRA PRATAP VERMA
कौन है जो मेरे भीतर है
DEVENDRA PRATAP VERMAकौन है जो मेरे भीतर है
जिसको मैं जान न पाऊँ,
मेरे नाम से जाना जाता
लेकिन मैं पहचान न पाऊँ।
दिन रात की आँख मिचौली
चाँद चाँदनी फिजा रंगीली,
कुंज लताएँ सुमन सुगंधित,
तरुवर की छाया अति ऊर्जित।
मेरी आँखों से देख रहा सब,
पर मैं उसको देख न पाऊँ।
बहती सरिता की धार प्रखर
झरनों के बहते मीठे स्वर,
कोयल कूके पंछी चहके
सातों सुर सरगम के गूंजे।
सुन रहा वह सब कुछ मुझमें
पर मैं उसको सुन ना पाऊँ।
सही गलत को गाता है
धूप छाँव दिखलाता है,
मन की मोटी परत जमी है
मन सब को भरमाता है।
है अछूता वह इन सब से,
मैं भी उसको छू न पाऊँ।
प्रतिपल है वह आभासों में
आती जाती हर श्वासों में,
स्वयं सृष्टि सा लगता है
है कण-कण की सुवासो में।
ज्ञान मुझे है उस चेतन का,
लेकिन उस तक पहुँच न पाऊँ।
अपने विचार साझा करें
अपने भीतर अक्सर एक व्यक्तित्व का आभास होता है जो स्वयं को अभिव्यक्त करने के बेकरार है। मुझ पर उसी की सत्ता है और मुझे उसका ज्ञान है किन्तु मैं उसका अनुभव चेतन रूप में कर पाने सक्षम नहीं हूँ। प्रयासरत हूँ उसमे स्वयं में अनुभव कर सकूँ। उससे एकमेव हो सकूँ। प्रस्तुत कविता इसी भावना से लिखी गई है।