क्या उल्लास बनाऊँ जीने का  Jyoti Khadgawat

क्या उल्लास बनाऊँ जीने का

Jyoti Khadgawat

क्या उल्लास बनाऊँ जीने का
जब हर रोज़ कभी दफ़्तर में,
कभी यातायात की भीड़ में,
ज़िन्दगी कटती जाती है।
 

क्या उल्लास बनाऊँ जीने का
जब हर सुबह अपने दिल के टुकड़े को
किसी पराए के पास छोड़ आती हूँ,
उसकी मासूम आँखों की नमी से मुँह मोड़ कर
इस ज़िन्दगी की भागदौड़ में खो जाती हूँ।
 

अनजानों में दिन बिताती हूँ,
अपनों से दूर होती जाती हूँ,
ऐसे पैसों का क्या करूँ
जो ज़िंदगी में दुःख बढ़ाए जाते हैं
और फुर्सत के पल कम करते जाते हैं।
 

कल जब पैसे कम थे
तब भी जरूरतें ज़्यादा थीं,
आज जब थोड़े ज्यादा हैं
ज़रूरतें और भी ज़्यादा हैं,
इस अंतहीन इच्छाओं की भागभाग में
मेरी ममता दूर छटपटाती है।
 

इस दौड़ में कोई नहीं जीता
कब्र में कोई नहीं अपनी सम्पत्ति के साथ लेटा,
हम फिर भी भागे जाते हैं,
जिस को कृत किया
उसका बचपन बीता जाता है,
हर दिन अपनों से दूर किया जाता है,
हाथों से ये बहुमूल्य पल फ़िसले जाते हैं।

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