प्रकृति माँ की चीत्कार Shruti Garg
प्रकृति माँ की चीत्कार
Shruti Gargहै एक चीत्कार उठी
प्रकृति माँ पुकार रही,
अपनी ही संतानों की
करनी का भार संभाल रही।
आज धधक रहे जो जंगल हैं
वो प्रकृति माँ का कोमल दिल हैं,
ज्वाला भभकी है जो आज
वो है धरती के क्रोध का आगाज़।
लहरों में सिमटे खेत खलिहान
गलियाँ, चौबारे, घर, मैदान,
जो तेरे लिए सिर्फ पानी का उफान है
वो प्रकृति माँ के आँसुओं का सैलाब है।
स्वच्छ, शुद्ध और कोमल पवन
है जिससे संभव श्वसन,
जो रौद्र रूप धर आज बन गई तूफान है
ये सब तेरे ही स्वार्थ का परिणाम है।
कचरे के ढेर खड़े कहीं
कहीं गंदगी का अंबार है,
भूल गए गंदगी फैलाने वाले
कि प्रकृति है तो हम हैं और ये संसार है।
ये कोई मौसम का चक्र नहीं
प्रकृति माँ की चेतावनी है,
अब भी ना जो सुधरे हम
तो तय हमारी बर्बादी है।