रिश्ते  APOORVA SINGH

रिश्ते

APOORVA SINGH

ये आया दौर कैसा है
हर बंधन बंजर सा है,
रिश्तों की है क्या औकात
हर नियत में पैसा है।
बीवी के हैं आँसू दिखे
साथ लेके सोना है,
माँ का बिलख भी जाना अब
तो फिजूल का रोना है।
 

वो त्रेता युग था जहाँ एक
भाई राम को पूजता है,
गद्दी खड़ाऊ से उनकी ही
दिन दिन रात सहेजता है।
पर तेरे और मेरे युग में
ये मुमकिन नहीं है रे,
जहाँ एक भाई दूसरे भाई
की तरक्की से जलता है।
 

छींक एक भी बीवी की
कलेजा मुँह को लाती है,
ना निकली ख्वाहिश मुँह से जो
तुरंत पूरी करी जाती है।
नंगे पाँव चल-चल के
पड़े छाले जो पैरों में,
लाचार बाप पे एक निगाह भी
ना तरस की खाई जाती है।
 

उसे खिलाते हो तुम हर कौर
कि जो वो ज़िद में रूठी है,
जरा सी लड़ाई क्या हो गई
वो सच्ची और माँ झूठी है।
मनाते हो उसे तुम पैर
छू-छू के और गिर-गिर के,
ज़रा झुक जाओ उस सजदे में
जो सुबह से भूखी बैठी है।
 

उसे दिया चाँद का दर्जा
दिन-दिन भर निहारते हो,
जो आया है अब नवरात्र
कि देवी को सँवारते हो।
पर बताओ बात मुझे तुम एक
इस इबादत का क्या मतलब है,
जिसने कोख में तुम्हे सींचा
उसे तो डायन बुलाते हो।
 

बूढ़ी माँ को शरण देना तो
तुम एहसान समझते हो,
उसे बीवी की ग़ुलाम और
बीवी को भगवान समझते हो।
क्या जानो कर्ज को तुम उस
जिससे सींचे तुम गए थे,
ये आँखें हो ही जाएँ अंधी
जो बाप को शैतान समझते हो।
 

तुम्हारी तबीयत जो बिगड़ी
सुबह से ज्वर ना उतरा है,
वो पट्टी रखती रही सिर पे
जो अगर जान को खतरा है।
तुम्हारी बीवी खा भरपेट सोई है,
जिसे देते रहे तुम गाली
उस माँ ने निवाला ना कुतरा है।
 

अभी भी है जरा वक़्त बचा
संभल सको तो संभल जाओ,
जो चुग गई चिड़िया खेत को
अभी है वक़्त बदल जाओ।
वो खुदा ना बख्शेगा किसी को
जो घड़ा पाप का भर गया,
माँ बाप मिलेंगे ना फिर तुम्हें
जो खा सको तो रहम खाओ।

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