परवाज़ भरने की जुस्तजू है  SUBRATA SENGUPTA

परवाज़ भरने की जुस्तजू है

SUBRATA SENGUPTA

ऐ-दिल तुझे क्या बताऊँ?
मुझे भी आसमा में
परवाज़ भरने की जुस्तजू है,
मुझमे भी औरों की तरह
उन्स के लम्स से
दिल रफ्ता-रफ्ता धड़कता है।
 

ऐ-दिल शायद तुझे
यह अहसास है
कि मैं संगदिल नहीं हूँ,
मैं भी औरों की तरह
हाड़-मांस वाला एक
मजरूह इंसान हूँ।
 

हालात चाहे जैसे भी हो
चश्मों से अश्क़ बहाना
मेरी शान के खिलाफ है,
जीवन से हार मानकर
सारे जहाँ से ठोकरें खाकर
अपनों के फरेबों से
चश्मों से अश्क़ बहाने से
ये ज़माना नाकारा कहता है
और अश्क़ न बहाने से
संगदिल कहकर बुलाते हैं।
 

ज़माना मुझसे है
मैं ज़माने से नहीं,
मुझे आसमां में
परवाज़ भरने की जुस्तजू है
चश्मों से अश्क़ बहाने की नहीं,
चट्टान सी उम्मीद पर अडिग हूँ
भले ही हाड़-मांस वाला
एक मज़रूह इंसान हूँ,
ऐ दिल तुझे क्या बताऊँ?
मैं संगदिल नहीं हूँ।
 

यदि उड़ान भरने में
समर्थ नहीं हैं
तो दौड़ कर आगे बढ़ना है,
और दौड़ने में भी असमर्थ हैं
तो घुटनों और हथेलियों
के बल पर आगे बढ़ना है।
रुकना नहीं है
आगे ही आगे बढ़ना है
क्योंकि स्थिर पानी के अंदर
पड़े पत्थर में काई लग जाती है,
और बहते पानी के साथ
लुढ़ककर चलने वाले पत्थर
काई विहीन रहते हैं।
 

मानव जीवन भी ठीक
इसी प्रकार है,
रुक जाओ तो काई से
ग्रसित हो जाओगे,
और चलते रहो तो
काई विहीन रहोगे।
शायद जीवन का दूसरा नाम है
निरंतर आगे बढ़ते रहना,
रुकना नहीं है
थम जाना जीवन के
वजूद के खिलाफ है।

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