मंज़िल की ओर बढ़ना चाहता हूँ SUBRATA SENGUPTA
मंज़िल की ओर बढ़ना चाहता हूँ
SUBRATA SENGUPTAमैं आकाश में उड़ान
भरने वाले रंग-बिरंगे पतंग
नहीं बनना चाहता हूँ,
जिनका वजूद पतंगबाज़ के
उँगलिओं पर निर्भर है।
मैं तो आकाश में
उड़ान भरने वाला कोई भी
विहग बनना चाहता हूँ,
जिसका वजूद अपना हो,
भरोसेमंद डैनों पर निर्भर है।
मैं किसी की अहसान वाली
मोटर के सहारे अपनी मंज़िल
की ओर बढ़ना
नहीं चाहता हूँ।
मैं अपंग हूँ, पर बैसाखियों
के सहारे रफ्ता-रफ्ता
मंज़िल की ओर बढ़ना चाहता हूँ।
किसी पिंजरे में कैद
किसी तोते की तरह,
चने और हरी मिर्च
का स्वाद मैं लेना नहीं चाहता हूँ।
बल्कि इधर-उधर भटककर
अपने परिश्रम से,
बिखरे हुए अन्न के
दाने चुगना चाहता हूँ।
गौरैये की तरह भी
किसी भी भवन में,
अपना घोसला
नहीं बनाना चाहता हूँ।
मैं तो बगुई पक्षी की तरह
किसी ऊँची ताड़ की पेड़ पर
अपना घोसला बनाना चाहता हूँ।
ये दुनिया यदि मेरी
ऐसी आदतों से
मुझे अभिमानी कहे,
तो मैं इस दुनिया से
बेहद खुश हूँ।
क्योंकि ये आदतें ही
मेरे आत्मबल हैं,
और ऐसे ही आत्मबलों के सहारे
रफ्ता-रफ्ता मंज़िल की ओर
बढ़ना चाहता हूँ।