बरिशें फिर चली RAHUL Chaudhary
बरिशें फिर चली
RAHUL Chaudharyआज बादलों ने फिर कहा है
आसमां से कुछ अनकही,
पैग़ाम कुछ मोहब्बत का लेकर
बारिशें फिर चली बूंदे बनकर।
इन हवाओं ने कुछ खास बना है
ख़्वाब कुछ अनसुनी,
हरियाली की बीज बोने
बरिशें फिर चली बूंदे बनकर।
जोर से कुछ शोर से प्रिय से मिलने
धूल में खोकर धरती की प्यास बुझाने
व्याकुल मिलने को एक दूजे से
बरिशें फिर चली बूंदे बनकर।
तत्पर है व्याकुल होकर
बूंदे बिखर कर मिट्टी में,
लिपट जाने को आपस में
बरिशें फिर चली बूंदे बनकर।
रूठी थी मुस्कुराहट जहाँ
वर्षा जल उसमे सनकर,
खो गए कहीं यहीं
हरियाली की मुस्कान भरकर।
उजली चमक फिर बिखेर
बरिशें फिर चली बूंदे बनकर।
सूखा हृदय जो ओज हीन था
बिन बूंदों के गमगीन था,
रस भर गए अब हर कण में
नम है सब पर अश्रु हीन है।
खुशियाँ भरने रंग भरने
बरिशें फिर चली बूंदे बनकर।
रंग चमक इन्द्रधनुष की
अब भूमि पर चहु ओर है,
हरियाली ही दर्पण प्रेम की
पुष्पित हर्षित है भरपूर।
चली सजाने धरती को,
बरिशें फिर चली बूंदे बनकर।