ठिठुरन Vinay Kumar Kushwaha
ठिठुरन
Vinay Kumar Kushwahaपास जिनके न हो सदन,
अर्धनग्न हों जिनके बदन,
उनसे जाकर पूछो तुम,
क्या होती है ये ठिठुरन।
दिन कैसे भी कट जाए,
पर रातें उनको सताए,
खोजते हैं जो हर पल,
कहाँ मिले थोड़ी तपन,
उनसे जाकर पूछो तुम,
क्या होती है ये ठिठुरन।
मारे-मारे वे हैं फिरते,
कोई नहीं काम हैं मिलते,
जीने के लिए फिर भी,
करते हैं वे भी रोज जतन,
उनसे जाकर पूछो तुम,
क्या होती है ये ठिठुरन।
जो होटल में बर्तन हैं धोते,
भीतर-भीतर ही रोते हैं,
सबको जो भोजन परोसे,
उनको मिलती है जूठन,
उनसे जाकर पूछो तुम,
क्या होती है ये ठिठुरन।