मंदमति और मंथरा  SANTOSH GUPTA

मंदमति और मंथरा

SANTOSH GUPTA

कहाँ कोई राम बनेगा
कौन बनेगा पुरुषोत्तम,
कौन बनेगा अनिष्ट काल में
त्रेता का रघुनंदन।
 

उस त्याग का, बलिदान का,
किसमें भरा है वह साहस,
उस प्रेम का, स्नेह का,
किसमें भरा है सुंदर रस।
 

उस शौर्य का, उस तेज का,
उस कर्तव्यनिष्ठा के ओज का,
उस वीर का, उस धीर का,
उस सदाचार के स्रोत का।
 

था सौमित्र सेवा में निहित
सियाराम के चरणों में गिरकर,
रामानुज ने धर्म निभाया
जीवन भर सेवक बनकर।
 

वह त्रेता था, थी एक मंथरा,
जिसने रचा था रामायण,
इस कलयुग में कितनी मंथरा
दशरथ क्यों ना करे क्रंदन।
 

रोवत, बिलकत, तड़पत दशरथ,
पग-पग मंथरा भड़कावत,
बना कैकेयी भोले जन को
प्रलयकारी त्रिया सिखावत।
 

करत ऐसा षड़यंत्र विचित्र
होवत देश में धर्मसंकट,
था पावन वो युग महान
अब कहाँ धर्मौतार भरत।
 

थी हृदय में मानवता तब
इसलिए तो कैकेयी पछतावत,
अब कहाँ वो भाव सच्चा
सब चिंगारी है भड़कावत।
 

बचेगा देश बचेगी प्रजा तब
जब बचेंगे हम मंदमति से,
लड़ लेंगे रावण से निश्चय ही
कैसे बचेंगे मंथरा की क्षति से।

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