हाँ! मैं डरता हूँ  SANTOSH GUPTA

हाँ! मैं डरता हूँ

SANTOSH GUPTA

हाँ, मैं डरता हूँ,
पर अपनी हार से नहीं,
संताप की धार से नहीं,
दूरीया चलने से नहीं,
चढ़कर फिसलने से नहीं।
डरता मैं नहीं
मुश्किलों भरी राह से,
डरता हूँ तो मैं बस
जमाने की डाह से।
 

चल तो मै लूँगा
काँटों पर भी, पर
कटीले विचारों के
घेरे से डरता हूँ।
रख तो लूँगा पाँव
आग की ज्वाला पर भी
पर, जमाने की जलन से
मैं डरता हूँ।
 

काट तो लूँगा
हर तकलीफ को मैं,
पर, ईर्ष्या की डोर को
काट नहीं पाता हूँ।
 

ध्यान से मैं भटका हूँ
कही आकर अटका हूँ।
फँसा हूँ अगर मैं
बीच मंझधार में,
डरता नहीं मैं
भीषण ज्वार से,
डरता हूँ बस मैं
कलह के अंधकार से।
 

डरता हूँ मैं
स्वार्थ के दुर्भावों से,
द्वेष के वार से
लगने वाले घाव से।
 

फूलों से संलग्न काँटो से
नहीं डरता मैं,
घनघोर अंधेरी रातों से
नहीं डरता मैं।
डरता हूँ मैं बस
लालच की अमावस्या से।
मानव से मानव की
आपस की ईर्ष्या से।
 

डगमगा कर खतरों से,
टकराकर पत्थरों से,
गिरने से नहीं डरता मैं,
डरता हूँ मैं बस
पीछे के धक्कों से,
गिराने में लगे सभी
फरेबी तरीकों से।
 

पहाड़ों सी ऊँचाइयों पर
चढ़ने से नहीं डरता,
जीवन के कड़वे सच को
पढ़ने से नहीं डरता।
प्रश्नों के इम्तिहानों से
कहाँ मैं डरता हूँ,
पर, स्वार्थ के परिणामों से
हाँ, मैं डरता हूँ।
 

नभचर बनकर आसमान की
बुलंदियों को छूने को
उड़ानें तो भरता हूँ,
गिर पड़ूँ धड़ाम से नीचे
इस बात से नहीं डरता हूँ।
हौसले ना दे
फिर से मुझे कोई,
पर, निराशा के पिंजड़े में
ना डाल दे मुझे कोई,
बस इसी बात की उलझन मे पड़ता हूँ,
हाँ, मैं डरता हूँ।

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