वीर तू बढ़ता चल  APOORVA SINGH

वीर तू बढ़ता चल

APOORVA SINGH

तू सोचता है कुछ कभी तू करता है कुछ कभी
उस सोच को तू क्यों ना खुद से बाँध ले,
जो ठान ली तूने अगर जो छान ली तूने अगर
लहरा देगा परचम तू ये जान ले।
 

आरम्भ है ये ज़िन्दगी का तेरी ही मौजूदगी का
भय का वस्त्र तू ये फेंक उतार दे,
धारण कर तू अस्त्र अब उठा ले अपने शस्त्र सब
पराजय को दौड़ में पछाड़ दे।
 

है शत्रुओं का डेरा हर तरफ से ले है घेरा
घूर-घूर के तू वीरता की धार दे,
रख ना शौर्य में कमी कोई ना आँखों में नमी कोई
जो आए मौत तो बस दहाड़ दे।
 

मान खुद को अवतार श्री राम का है आकार
अवगुणों को लात मार तू धिक्कार दे,
कर्तव्य के तू पथ पे चल धर्म के तू रथ पे चल
जो आए कोई रास्ते में, फाड़ दे।
 

है सनातन का वंश तू महादेव का अंश तू
संस्कृति के झंडे फिर से गाड़ दे,
जो हिन्द के गद्दार हैं और पाक के पहरेदार हैं
उस दुष्ट को तू जड़ से फिर उखाड़ दे।

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