कारवाँ  रोशन "अनुनाद"

कारवाँ

रोशन "अनुनाद"

कारवाँ गुज़र चुका,
मैं बस देखते रह गया।

कुछ उड़ती धूल,
कुचले फूल।

पैरों के निशाँ,
किसके हैं
यह भी मालूम नहीं।

अनगिनत,
अलग-अलग
पर एक साथ
गड्डमड्ड

मैं किनारे खड़ा
निस्तेज, निर्विकार
देख रहा हूँ।

धूल मेरे चेहरे भी
मेरे पैरों पर भी।

पर मैं तो
कारवाँ का हिस्सा नहीं,
मैं तो
बहार के इंतजार में खड़ा,
चमन को निहार रहा था।

जहाँ से गुज़र गया
कारवाँ,
वहाँ तो गुलशन था,
कलियाँ खिलने को
मचल रही थीं,
बस बहार आने को ही थी।

कुछ लम्हों में
सब बदल बदल सा गया।

पर ऐसा तो
हर बार होता रहा है
बहार आने को होती है,
तभी कारवाँ गुज़रता है।

ऐसा उसकी मर्ज़ी से होता है
या हमारी खुदगर्जी से,
मालूम नहीं,
पर अज़ीब इत्तेफाक है।

हर तरफ धूल ही धूल
कुछ दिखाई न दे,
आंखों को,
न कुछ सूझे
ज़मीर को,

ये कैसा ग़ुबार था
जिसने मुझे भी
किनारे
खड़े-खड़े,
उस कारवां का
हिस्सा बना दिया।

मेरी पहचान
अब कोई नहीं।

कारवां में
सभी के चेहरे पर धूल
पैरों में कीचड़।

सब एक से दीखते हैं।

कैसे दीखते हैं
पता नहीं
पर लगते एक से हैं।

चले जा रहे,

नामालूम मंज़िल
अंजाम भी
क्या पता।

सुनाई देता है,
भीड़ के शोर में
जैसे
कोई गा रहा है,
या चीख रहा है-
तुझे चलना होगा
तुझे चलना होगा।

तभी लगा
जैसे कोई मेरे कान में
फुसफुसाया...

कोई रुकता नहीं,
ठहरे हुए राही के लिए,
जो भी देखेगा वो
कतरा के निकल जाएगा,
इतने नाज़ुक न बनो
इतने नाज़ुक न बनो।

फिर
मुझे अहसास हुआ..
अलग रह कर भी
मैं अलग कहाँ।

फिर याद आया
मनुष्य तो सामाजिक प्राणी है।

मैं भी
इंसान न सही,
पर मनुष्य तो
हूँ ही शायद,

सर्वोत्तम की उत्तरजीविता
यह भी याद आ गया अचानक।

और मनुष्यत्व के जागते ही,
ज़मीर के भागते ही,
मैं भी ठिठक कर ही सही,
अचानक दौड़ पड़ता हूँ
उस भीड़ के पीछे।

वही धूल
मेरे चेहरे पर सनी,
वही कीचड़
मेरे पैरों पर,
मेरे बदन पर।

कुछ और भी खड़े थे,
मुझसे दूर
वे भी दौड़ पड़े
यह चीखते हुए
अकेले-अकेले
कहाँ जा रहे हो,
हमे साथ ले लो
जहाँ जा रहे हो,

और कारवाँ
बढ़ता गया
बढ़ता गया।

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