प्रेम के दरख़्त Shatakshi Srivastava
प्रेम के दरख़्त
Shatakshi Srivastavaसावन के महीने में अकेली खड़ी मैं
खिड़की के सिरहाने,
दरीचों से टपकती बूँदें,
टिप-टिप... छम-छम...
मेरे मन के सन्नाटे को चीरती हुई
अपने अस्तित्व का परिचय देती हैं।
नावाक़िफ़ तुम मेरे प्रेम से
और मदहोश-सी मैं,
बीती रात की तुम्हारी छुअन को
न सहेज पाने के इज़्तिरार में
अंदर ही अंदर घुट रही हूँ,
आख़िर सपने में जो आये थे तुम।
तेज दुपहरी में बदन पर
लू के थपेड़ों-से चुभते हो तुम,
तो कभी ठंड की शाम की सिहरन से तुम
साये की तरह मेरा पीछा नहीं छोड़ते।
मैं भी तुम्हारा अक़्स अक्सर तलाश ही लेती हूँ,
हर जगह...
सुबह को कहीं दूर से
कानों में पड़ती अज़ान हो तुम,
घोर रात्रि की शांति सरीखा
मेरा अघोर ध्यान हो तुम।
बर्फ़ से ढकी हरी वादियों से भी ख़ूबसूरत तुम्हारी यादें हैं,
जो मेरे दिल में बड़े ही क़रीने से संजोई हुई हैं,
जिन तक कभी कोई नहीं पहुँच पाया है।
हर गलियों के अनजान मोड़ पर,
हर अजनबी चेहरे में
तुम्हें तलाशती मैं
इस बात से अनजान नहीं हूँ कि तुम मेरे कभी नहीं हो सकते
फ़िर भी
दिल पर कहाँ किसी का ज़ोर है?
इतना कह देना चाहूँगी कि कभी-कभी,
कुछ सालों पर,
अपनी ख़ैरियत की ख़बर मुझ तक
किसी बहाने पहुँचा देना
और मेरे मन में पल रहे
अपने नाम के दरख़्तों को
सूखने से बचा लेना...बचा लेना...