कल कि दुआ आज न हो कुबूल Rafiq Pasha
कल कि दुआ आज न हो कुबूल
Rafiq Pashaदुआ है कि मेरी अनसुनी दुआएँ अब न हो कुबूल,
कल तक जो ज़रूरत थीं, आज लग रही हैं फ़िजूल।
न जाने कितने आस्तानों पे चिराग जलाए,
हर दहलीज पे जबी झुकाना न बन जाए अनुकूल।
उम्मीदों और ख्वाहिशों कि इन्तिहा नहीं होती,
ज़रूरतें पूरी करने न ढूंढने पड़े रोज़ नए रसूल।
माबूद से न शिकवा न गिला, जो मिला शुकर है,
मुराद पूरी करने, किए हर नदी मे उसूल।
सिर्फ तरकज़ ए अमल न बन जाए इबादत,
जफकश भी ज़िन्दगी में हो जाए मामूल।