तुम  Harshita Singh

तुम

Harshita Singh

बरसती रहती है घटा रात दिन
ठंडे पड़ चुके आश्वासन में
प्राण प्रसारित करने को,
वो हाथ जो तरस गए साथ को
बुन रहे हैं मनगढ़ंत किस्से।
 

खुद को समझाते, मनाते,
तेज ठहाकों में गुम हुई मुस्कान
को तलाशते, निराश होते,
बंद अलमारी में गश्त लगाती यादें
और डायरी में कैद सूखा गुलाब।
 

कुछ व्यंजन जो अब किसी और
को परोसे नहीं जाते बेस्वाद से खड़े हैं,
संभाल के रख लिए थे जो कपड़े
कि उनकी सुगंध सहारा बनेगी,
वो भी अब समय के दास हैं
हाथ छोड़ कर जाने को तैयार हैं।
 

सोते-सोते रात में सितारों ने पूछा
कुछ खो गया है क्या?
चांद जैसा मैं स्तब्ध सोचती रही
कि क्या कहूँ
है साथ भी और साथ मेरे है नहीं।
 

हिम कण बने अश्रु भी नहीं बहे,
बालिग हैं सारे भाव
इनको क्या कहें
काश कि पहिया उल्टा घूमे
समय फिर समय पे आ जाए,
फ़िर से रंगीन लगे प्रसून
और विह्वल मन बहला जाए।
 

फिर साथ तुम्हारा पाकर मैं
हो जाऊँ पत्थर से पल्लव,
आज़ाद करूँ मृगतृष्णा को
नव जीवन में हो मधु कलरव।
 

जब दृष्टि तुम्हारी पड़ते ही
सारी सृष्टि मुस्काएगी,
शांत, सनातन, शुभ सुंदरता
पूरी नहीं समाएगी,
उस रोज प्रिए होगा प्रणीत
मेरा मृतप्राय पड़ा जीवन,
तुमको पाकर, तुम में खो कर ही
जीवित होगा अंतर्मन।

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