वक्त  Mahavir Singh Thakur

वक्त

Mahavir Singh Thakur

वक्त गुज़रता गया,
उम्र ढलती गई,
गुज़र चुका बचपन,
जवानी भी गुज़र गयी।
 

उम्र का तकाजा बेशक
असर कर गया मुझपर,
मगर बेअसर हैं यादें
अब भी बचपन की,
भले ही कम हुई हो रौनक
अब जिस्म की
वही बचपन की यादों ने
भर दी है रौनक नए किस्म की।
 

जब भी बचपन की अनाप-शनाप बातें याद आती हैं,
आँखों की पुतलियों में प्यारे दोस्तों की
तस्वीर उभर आती है,
उम्र भले ही ले गई हो
बचपन मेरा मगर मुझमें
मेरा बचपना अब भी बाकी है।
 

कौन कहता है तजुर्बा उम्र से होता है,
हम तो कहते हैं
तजुर्बा तो हालात सिखाती है,
जागती हुई आँखों ने
दुनिया में कई खेल देखे हैं,
कुछ अजीब तो
कुछ बेमेल देखे हैं।
 

100 किलो का उठाए बोझ
जिसे जो लदवा सके,
देखो किस्मत अभागे की
उससे वह खरीद न सके।
असमर्थ है इसे जो उठाने में
समर्थ बना दिया है उसे
इसे खरीदने में,
यही जीवन का खेल है
सच है मगर बेमेल है।
 

चाहत हमें जिस-जिस की है
काश! हमें वह सब मिल जाता,
ईश्वर को तब कौन पूछता
विधाता किस खेत की मूली होता।
कौन पूछता भगवान को
कौन कहे मंदिर जाता,
कल्पवृक्ष कर अपने घर को
चाहत की भँवर में
डूब ही जाता,
मज़ा जीवन का क्या इसमें आता।
 

धूप न होती तो छाँव को कौन पूछता,
रात ना होती तो दिन को कौन पूछता।
दुख है दुनिया में
तभी तो
सुख का अहसास होता है,
मिले ना मन का मीत तो
पल में मैं उदास होता है।
 

गया वक्त कभी हाथ नहीं आता
आने वाला वक्त कैसा आएगा,
कोई बता नहीं पाता
जो पल है तेरे हाथ में ऐ मेरे मैं
उसे खुशनुमा बनाना है तेरे हाथ में।
देख ऐ मैं मेरे
तेरा बचपना फिर वापस आएगा,
समझदारी के दलदल से निकाल तुझे
माँ की लोरी सुनाएगा।

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