प्रतिकर्ष ARUN KUMAR SHASTRI
प्रतिकर्ष
ARUN KUMAR SHASTRIरचना विधा - स्वछंद पद्य , विषय एकाकी -एकांत , भाव - मनोदैहिक मनोआत्मिक , परा - भौतिक
तेरे आकर्षण का पल-पल प्रतिकर्ष सताता है,
सामजिक ताना बाना मेरी उलझन बढ़ाता है।
नदिया के पास जाऊँ तो शीतल हो जाऊँ,
साथ दो अगर तो मैं मुस्कान बन जाऊँ।
आकर्षक सा छद्म आव्हान मुझे बुलाता है,
सामजिक ताना बाना मेरी उलझन बढ़ाता है।
तुमसे कहने का मैं कोई मौका न छोड़ता,
बस एक इशारा मिलता तो ही तो बोलता।
ऊहा पोह के सागर में अब गोता खाता हूँ,
सामजिक ताना बाना मेरी उलझन बढ़ाता है।
दर्द की बात न करूँगा दर्द अब बेमानी हुआ,
चाय की चुस्की में मैं इसको बिसराता हूँ।
तुम्हारा साथ पा जाऊँ खुदा से मिल जाऊँ,
सामजिक ताना बाना मेरी उलझन बढ़ाता है।