ज़िम्मेदारी बिजेंद्र दलपति
ज़िम्मेदारी
बिजेंद्र दलपतिसर पे लदा बोझ, कंधों पे कर्तव्यों की सवारी है,
पर, अपने लिए कुछ पल, जीना भी जरूरी है।
ताकता है हर नज़र, हर नज़रों में आस है,
सालों बाद भी बुझ न पायी, कैसी ये प्यास है।
रोज़ ढहता, फिर बन जाता, रेत का ये टीला है,
शस्त्रों से भेदा ना जाए, अभेद्य ये क़िला है।
जिम्मेदारियों से भाग ना पाना, अपनी ही कमजोरी है,
पर, अपने लिए कुछ पल, जीना भी जरूरी है।
दायित्व घटते नहीं, घट जाता ये उम्र है,
रोशनी के सूक्ष्म कणों पे छाया, धूम्र ही धूम्र है।
आस है जल्द पलट जाएगी, अपनी जो किस्मत है,
निराशा भरी जिन्दगी में, इकलौता ये हिम्मत है।
'सर्वप्रिय' और साथ 'स्वप्रिय', बनना भी मज़बूरी है,
और, अपने लिए कुछ पल, जीना भी जरूरी है।
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आजकल हर व्यक्ति अनेकों ज़िम्मेदारियों के बोझ तले दबा हुआ है। सब लोग अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाते-निभाते स्वयं की खुशियों को भूल जाते हैं। अतः मैं सब लोगों से आग्रह करता हूँ कि ज़िम्मेदारियों के साथ-साथ अपने लिए भी वक्त निकालें और अपनी खुद कि ज़िंदगी को भरपूर जिएँ।