मज़बूत दो हाथ अंजना कुमारी झा
मज़बूत दो हाथ
अंजना कुमारी झाये महल है मेरे सपनों का
जिसे बनाने वाले दो मजबूर हाथ हैं,
ये महल है मेरे सपनों का
जिसे बनाने वाले दो पत्थर के हाथ हैं।
देखा उसे जब मैंने चिलचिलाती धूप में
नंगे पाँव से सरपट भागते हुए,
तन पर फटे कपड़े,
तो गोद में बच्चे को टाँगते हुए।
माथे पर रेत की टोकरी उठा
तो डर का नकाब ओढ़े,
लड़खड़ाते कदम चल पड़े थे
दिन भर का भार ढोए।
डर मालिक के डाँट का ना था,
डर मेहनताना कटने का था,
भूखे पेट फिर बच्चे को सुलाने का था।
उस 3 इन्च के माथे पर सैकड़ों शिकन थे
उसके हर एक शिकन में दर्द था,
उसके उस दर्द को पढ़ने की कोशिश की
तो कुछ ही पल में मन सहम सा गया,
चाह कर भी हिम्मत ना कर पाई,
उन शिकनों को मैं आगे ना पढ़ पाई।
चाह बहुत थी मन में दबी
उसकी व्यथा को जानने की,
तो बचपन से यौवन तक छिपाये दर्द को सुनने की
न चाहते हुए भी हज़ारों ख्वाहिशे दबाए उसने।
तो दूसरों की फिराक में अपना पूरा जीवन गँवाया उसने।
उसे देख जब पलट कर
अपने महल को देखा मैंने,
बस उस वक़्त यही सोचा मैंने
न जाने मेरे इस महल के निर्माण में
कितने मजबूरों का हाथ है
जिसका शोषण करता आज भी ये समाज है।
कब ये समाज अपनी
छोटी सोच से आगे बढ़ पाएगा,
तो न जाने कब बन्द कर इन गरीबों का शोषण
इन्हें इनका हक़ वापिस दिलाएगा।