वो सूना ‘गाछ’  सीमा भुनेश्वर सिंह

वो सूना ‘गाछ’

सीमा भुनेश्वर सिंह

वो एक बीज,
मिट्टी, पानी, प्रकाश पाकर
अंकुरित हो, कोंपल, मंजरी, फूल-फल सृजन करता
शून्य से विस्तृत रूप पाकर
तल से शिखर की आकाशगामी ऊँचाई नापता।
 

बड़े जतन से,
झुरमुटों से छानकर सूर्यप्रभा
उज्जवलित करता उसे, जो है अचला
बयार संग कर अठखेलियाँ
सराबोर करता शुष्क धरा।
 

सोहबत खोज,
परिंदों, किशोरों के बालमन का
अपने अंजुमन में सदा बसेरा रखता
बिठाकर उन्हें अपनी डाल-टहनियों पर
उनके कल्पनाओं की उड़ान भरता।
 

निज अभीप्सा में,
शरणार्थी बने थे कभी, इसके साए में
गुलैल बरसाते थे यूँ ही, खट-मिठ्ठे लालच में
कजरी भी गाते थे, सावन के झूले में
लोढ़े फूल सजते थे, प्रिय के जुड़े में।
 

अंतिम क्षण में,
किया वज्राघात, विध्वंसक मानव ने
कुंज था जो गत, आज बना है अकिंचन
बची-सूखी लकड़ियाँ भी, ले गए बीनकर
एकांत, व्यस्त, मशीनी जीवन की रफ्तार में
तन्हा, मुर्मुष रह गया, वो सूना ‘गाछ’।

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