अधूरे शव  Jan Mohammad

अधूरे शव

Jan Mohammad

लेकर ये अधूरे शव हम किधर जाएँगे,
अस्तपाल भर गए, मानव भी मर गए,
मानवता भी मर गई,
लेकर ये अधूरे शव, हम किधर जाएँगे।
 

के हर तरफ से एक आवाज़ आती है,
सिन्दूर गिरने की, चूड़ियों के टूटने की,
हर तरफ है शोर अपनो के बिछड़ जाने का,
बिना उस हवा के मरने का
जिसे हम विज्ञान की भाषा में ऑक्सीजन कहते हैं।
 

सब मर रहे हैं उस हवा के बगैर
जिसे पेड़ हमें मुफ्त में देते हैं,
और डॉक्टर जिसकी फीस लेते हैं।
सब मर रहे अपनों से मिले बिना,
कुछ कहे बिना, कुछ सुने बिना।
 

सब डर रहे है शवों को छूने से,
मग़र वो नहीं डरते सम्पत्ति में हिस्सा लेने से,
सब डर रहे एम्बुलेंस की आवाज़ों से
भले ही वो खाली हों मग़र वो डर रहे हैं।
 

अगर इतना डर पहले होता तो क्या होता,
मानव होता, मानवता होती,
ये अस्पताल जो आज हमे शवगृह लग रहे हैं
जीवन बचाने का गृह होता,
ये ऑक्सीजन हमें जो मुफ्त में मिला है
डॉक्टर उसकी फीस वसूल न करते।
 

वो हमसे हमारे हाथ में
अपना हाथ रखकर दम तोड़ते,
वो अस्पताल में अकेले न मरते,
हम उनके शव को छूने से न डरते।
 

सब कुछ सही होता अगर
हमने सम्मान सीख लिया होता,
मानवता सीख ली होती,
मानव बनना सीख लिया होता,
सब सही होता,
काश आज सब सही होता।

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