माटी कहे कुम्हार से  Surya Pratap Singh

माटी कहे कुम्हार से

Surya Pratap Singh

माटी कहे कुम्हार से
थाप जरा दे आराम से,
कर चुका अथक परिश्रम तू
हाथों को तनिक विश्राम दे।
 

क्यों इतना चोट दे रहा मुझे,
क्यों कर रहा व्यर्थ इतना प्रयत्न,
हो रहा क्यों इतना अधीर,
क्यों दे रहा कोई आकार मुझे।
 

हो शुभ कार्य यदि कोई
घर मे यदि हो कोई उत्सव,
सर्वप्रथम पैगाम तुम्हें मिलता
कर देना इतने बर्तनों का प्रबन्ध।
 

अब तो बाज़ारों में है उपलब्ध
मेरे कितने सारे विकल्प,
रंग-बिरंगे चमकीले से
हर जगह जन-जन को सुलभ।
 

मुझसे बने हुए आकार
अन्ततः मुझमे ही मिल जाते हैं,
पर मेरे उपलब्ध सारे विकल्प
केवल प्रदूषण फैलाते हैं।
 

थी कद्र जिन्हें गुणों की मेरी
वे घरों मे मुझको लाते थे,
गगरी, मटका, कुल्हड़ या कोसियाँ द्वारा
घर-घर में तब व्यंजन पकाते थे।
 

सुन्दर सुलभ सुराही से
शीतल जल सबको मैं प्याऊँ,
सबकी प्यास बुझाकर फिर
आनन्द विभोर हो तृप्त मैं भी हो जाऊँ।
 

कैसे बतलाऊँ निज व्यथा तुम्हें
कैसे व्यक्त करूँ मनोदशा अब अपनी,
तज दे अब मुझे, कर तू भी कुछ विशेष,
किंचित चिंता मेरे प्रति लोगों मे अब नहीं शेष।

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