पिता SANTOSH GUPTA
पिता
SANTOSH GUPTAप्रज्ज्वलित कर दीपक तुम्हारा
जो तेल बनकर जलता है,
जिन शाखों से तुम्हारे जीवन का
फूल सुंदर खिलता है,
जिन रागों से तुम्हारे जीवन का
संगीत मनोहर बजता है।
जिन धागों से तुम्हारे जीवन का
पतंग ऊपर उड़ता है,
शुष्क नयनों से रो कर जो
संताप अपना छिपाता है,
मौन रहकर पीड़ा अपनी जो
बस स्वयं को ही बतलाता है।
खुद को भी बेचकर जो
खिलौने घर लाता है,
तकलीफों की जो बारिश हो
सर पर छाता बन जाता है,
समस्याओं की धूप में
छाँव जो बन जाता है।
हमारे जीवन की नाव हो पार
दाँव पर लग जाता है,
कोमल पैर रहे हमारे
खुद की एडियाँ घिस जाता है,
पिता वही कहलाता है,
पिता वही कहलाता है।
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कहा जाता है कि एक बेटे के द्वारा अपने पिता को समझने में करीब 60 साल लग जाते हैं जब वो खुद एक पिता बन कर अपने बेटे में अपने पूरे जीवन का अतीत देख रहा होता है। जी हाँ दोस्तों, एक पिता को समझना, माँ को समझने से भी अधिक मुश्किल है। मेरी ये पंक्तियाँ पिता की भूमिका के एक छोटे से हिस्से को समझने-समझाने का प्रयास करती हैं।