अधर्म ARUN KUMAR SHASTRI
अधर्म
ARUN KUMAR SHASTRIनिहित कर्म को भूल कर
स्वार्थ कार्य जब होता है,
पीड़ा के अवसादों का तब
परिमार्जन ही होता है।
दूरन्देशी जज्बाती इच्छा
क्रूर भावना संग मिल कर,
सामाजिक जंजालों को
बुनकर द्रोह रचा करती है।
ऐसे-ऐसे परिदृश्यों का भी क्यों
अभिवादन ही होता है,
भूल गए संस्कार यशस्वी
वेद ऋचाएँ श्लोक सभी।
धर्म सम्बन्धित आदर्शों का फिर
मार्ग भूल कर दुष्ट चलन ही होता है,
मैंने अपना फर्ज़ निभाया
सदमार्गों की कभी दिशा न त्यागी।
खण्ड-खण्ड फिर मन मेरा
भी यदा-कदा तो होता है,
न्याय प्रक्रिया कुण्ठित होकर
अन्यायों से आच्छादित होगी।
नई कौम रे मनवा देखो, कैसे
छुप-छुप घुट-घुट कर के रोता है,
आज नहीं तो कल ये होगा
मुझसे सब कुछ लिख कर ले लो।
परिवर्तन की हवा चली है
अब परिवर्तन तो होना है,
निहित कर्म को भूलकर
स्वार्थ कार्य जब होता है,
पीड़ा के अवसादों का तब
परिमार्जन ही होना है।