यादों का बक्सा  AAstha Ravindra singh thakur

यादों का बक्सा

AAstha Ravindra singh thakur

खिड़की से देखते हुए
यादों में खो गया था।
कुछ खट्टी, तो कुछ मीठी
जो कभी आँखों में पानी लाती
तो कभी चेहरे पर मुस्कान,
बैठे-बैठे यादों के
सफर में चलने लगा,
माँ का सुलाना
और पापा का जगाना,
वह आँचल से मुँह पोंछना
और रोज सुबह
मेरे साथ दौड़ लगाना
याद आने लगा।
आगे तो बढ़ रहा था
लेकिन सारी यादों को
पीछे छोड़कर
दुनिया देखनी थी
परंतु उन हाथों को पकड़कर।
अगले ही स्टेशन पर
उतर कर
उस बक्से की तरफ
बढ़ने लगा,
चौखट पर खड़े होकर
उन प्रश्न भरी आँखों में देखने लगा,
अपनी दुनिया को
फिर से अपनी बाहों में लेकर
बोलने लगा,
वहाँ मुझे पापा छोड़ने नहीं आएँगे
ना मिलेगा आपके हाथ का खाना,
प्यार तो बहुत लोग कर सकते हैं
लेकिन ममता कौन दे पाएगा ?
आपका खिलाना
और पापा का होटल से खाना लाना,
बिना कुछ कहे ही
मन की बात जान जाना,
सामने से डाँट कर
पीछे चुपके से रोना,
मेरे जूतों के लिए
रात भर काम करना,
खुद जमीन पर सो कर
हमें बिस्तर पर सुलाना,
झगड़ते हुए भी
मेरे साथ रहना,
अपनी फटी जेब से
महँगी फ्लाइट की टिकट खरीदना,
हमारे बाद सो कर भी
हमसे पहले उठना,
मैं रूठना और आप मनाना
अंदर से रोते हुए भी
मुस्कुराते हमें दूर भेजना।
क्या इतना आसान है
आपसे दूर जा पाना,
जिन हाथों ने था
मुझे चलना सिखाया,
उन हाथ हाथों को पकड़कर ही
मुझे है दुनिया घूमना।

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