छाँव Aparna ghosh
छाँव
Aparna ghoshकोई सुकून की छाँव ढूँढ रहा है,
कोई प्रीत का गाँव ढूँढ रहा है,
कोई आज भी राहों की तपिश सहन कर,
अपने बचपन की नाव ढूँढ रहा है।
कोई भूखे बच्चों की रोटी ढूँढ रहा है,
कोई इज्ज़त वो खोटी ढूँढ रहा है,
कोई आज भी बरगद की संदिल छाँव,
सुकून के दिनों की गोटी ढूँढ रहा है।
कोई राहत का बादल ढूँढ रहा है,
कोई छाँव का आँचल ढूँढ रहा है,
कोई बड़ी कठिन यात्रा कर,
अपने घर का आँगन ढूँढ रहा है।
कोई ख्वाबों का आशियाना ढूँढ रहा है,
कोई इश्क़ सूफियाना ढूँढ रहा है,
कोई सब कुछ मिल जाने के बाद,
हक़ीक़त का फसाना ढूँढ रहा है।
किसको मिलेगा क्या यहाँ,
आख़िर इस शून्य में क्या ढूँढ रहा है,
कोई जीने का सबब ढूँढ रहा है,
कभी मरने का अस्बाब ढूँढ रहा है।