न जाने क्यों प्रीत लगाई VIMAL KISHORE RANA
न जाने क्यों प्रीत लगाई
VIMAL KISHORE RANAकिसी आकर्षण का भ्रम है,
भावनाओं का मर्म है,
शीत है, कभी गरम है,
क्या है इस प्रीत की गहराई,
जान सके न कभी हम,
न जाने क्यों प्रीत लगाई।
ख्यालों में आ जाए कोई,
सपनों को छू जाए कभी,
होते हो जब पास कभी,
तो हो जाता एहसास कभी।
न जाने क्यों तेरी प्रीत ही
मेरे अन्तर्मन में समाई,
जान सके न कभी हम,
न जाने क्यों प्रीत लगाई।
दूर कभी जाना चाहें
उतने ही पास आ जाते हैं,
परिस्थितियों के भँवर हमें
फिर उसी मोड़ ले आते हैं।
और उस पर ये पागल मन,
जिसने तो बस लगन लगाई,
जान सके न कभी हम,
न जाने क्यों प्रीत लगाई।
मन हमको बहकाया करता है,
अरमानों से महकाया करता है,
किस तरह इसको समझाएँ,
ये हमको समझाया करता है।
कि बस उसको ही जीत लो
चाहे जितनी हो हाराई,
जान सके न कभी हम,
न जाने क्यों प्रीत लगाई।
जब हमको एक बुखार चढ़ा,
जब अपने सर पर प्यार चढ़ा,
तब पता नहीं था हमको यह,
कि इसका कोई इलाज़ नहीं।
सब समाज देखा हमने,
पर फिर भी मन को लाज नहीं,
कितने ही लम्हे बीत गए,
हम जान गए कोई बात नहीं।
बस खुद को बहला सकते हो,
वह प्रीत जगा नहीं सकते तुम,
बस प्यार को जतला सकते हो,
उस प्यार को पा नहीं सकते तुम।
उस साथ को तो है पा लिया,
पर वैसे नहीं, जैसे चाहत है,
बस बहुत समय है बीत गया,
अब नहीं खुशी की आहट है।
फिर क्यों तुम उसी दिशा में,
दोबारा कदम ले जाते हो,
जब खुद को समझा सकते हो,
तो क्यों नहीं समझाते हो।
वह तारा धीरे-धीरे ही सही,
कहीं लुप्त हुआ चला जाता है,
अंधियारी रात की गोद में,
वह सुप्त हुआ चला जाता है।
उस तारे के आकर्षण को,
जी लिया, जी चुके, अब छोड़ दो,
वहाँ अपना कोई कभी न था,
आकाश से नाता तोड़ दो।
खुद को कभी तो व्यस्त किया,
खुद को अक्सर परास्त किया,
फिर भी कुछ ही समय ने,
फिर से है ये अग्न जलाई,
जान सके न कभी हम,
न जाने क्यों प्रीत लगाई।
किसी आकर्षण का भ्रम है,
भावनाओं का मर्म है,
शीत है, कभी गरम है,
क्या है इस प्रीत की गहराई,
जान सके न कभी हम,
न जाने क्यों प्रीत लगाई।
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प्रस्तुत कविता उस प्रेमी की कशमकश है या एक असमंजस की हालत है कि क्या जिससे वो प्रीत लगा बैठा है और जिसको खुश करने में उसके दिन निकलतें हैं, वो भी उसे उतना ही प्रेम करती है या फिर केवल भावनाओं से खिलवाड़ ही हो रहा है। अपने फैसले पर उसे एक पछतावा भी है लेकिन अब उसका दिल लग चुका है।